आज ! गए मौसम के कपड़े धूप दिखा कर संदूख में रखने को जैसे ही संदूख मैंने खोला ,तो उसमे हाथ का बुना हुआ कथ्थई स्वेटर पहले से ही रक्खा था ! .....उसे हाथ में लेते ही बीते वक़्त के उन गलियारों में पहुँच गयी , जहाँ जाड़े की नर्म धूप है ,चटाई है और सामने सरिता बुनाई विशेषांक का वही पृष्ट खुला हुआ है जिसमे केबल और कंगूरों वाली डिजाइन है ! आँखे धसीं जा रही है पन्नों पर और हाथों में सलाइयां अपना काम कर रही हैं .......एक समय था शादी से पहले जब भी होस्टल से घर आती माँ का ये अक्सर कहना " अरे सिलाई बुनाई भी सीख लो नहीं तो ससुराल वाले क्या बोलेंगे कितनी बेसहूर बहु मिली है" .....पर तब बे परवाह थी ,नहीं जानती थी कि गोला ऊन का होता है पर फंदे प्रेम के डाले जाते हैं .....यह एहसास शादी के बाद हुआ जब मैंने ठाना कि एक स्वेटर अपने हाथ का बुना बनाउंगी इनके लिए !
बुनते वक़्त जाने कितनी बार गलतियां की, उधेडा भी, साथ प्रेम के कई फंदे भी बीच में छूट जाते थे उन्हें फिर से उठाना भारी पड़ता था ..एक बालिस्त बुनते ही नापने के जल्दी होती थी ....और जब बनकर तैयार हुआ और उन्हें पहनाया तो लगा जैसे इससे खुबसूरत और कोई पोशाक हो ही नहीं सकता पर जवाब में "अच्छा है " सुना तो हकीक़त के ज़मीन पर आ गयी ...फिर भी जब भी वो स्वेटर पहनते, मुझे लगता स्वेटर न हो कोई तमगा हो जो उनके सीने पर जंच रहा हो !
यह ख़ुशी बस कुछ साल की ही थी !....उसके बाद ब्रांडेड स्वेटर जर्सी जेकेट्स बाज़ार में क्या आये हाथ के बुने स्वेटर आउट डेटेड हो गए ........अब ये स्वेटर हर साल इसी मौसम निकलता है कुछ देर को धूप से अपने गम साझा करता है और एक साल के लिए उसी संदूख में सबसे नीचे के तह में सो जाता है ,बगैर किसी गिले शिकवे के ....!
बेटी कहती है "माँ बाकी कपड़ों की तरह इसे भी किसी को दे क्यों नहीं देती फालतू जगह घेरता है ?उसे कैसे समझाऊं के बुना तो ऊन से था पर सारे फंदे और डिजाइन प्रेम के थे और अपना प्रेम कैसे किसी गैर को दे दें ?
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