अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Tuesday, January 15, 2013

"एक रहेन मीर"

हमारे जनजीवन में प्रचलित आंचलिक लोक कथाएं जितनी आकर्षक और प्रवाहमय होती हैं उतनी  अप्रत्यक्ष रूप से कुछ सन्देश या शिक्षा देती हैं। अवधि एवं भोजपुरी में यह कथा बेहद प्रचलित  है , अब शायद बहुतो को याद भी न हो ..मैंने बचपन में बहुत सुनी थी उसे ही समेटकर यहाँ मूल रूप में प्रस्तुत कर रही हूँ कारण ,हिंदी में इसका  अनुवाद कर इसका  मजा ख़राब  नहीं कर  सकती


एक रहेन मीर
एक उनकर दादा
ऑउर एक हम

मीर कहेन चलो लकड़ी काट आई
दादा कहेन चलो लकड़ी काट आयीं
ता हमहू कहे चलो लकड़ी काट आयीं

मीर काटेन मीर लकड़ी
उनके दादा काटेन तीन लकड़ी
ऑउर हम चीरे चईलिया

ओ के  बाद गए बाजार बेचे
 मीर पाएन मीर आना
 दादा पाएन तीन आना
हम पाए कानी कौड़ीआ

ओ के बाद गए घोड ख़रीदे
मीर खरीदेन मीर घोड़
दादा खरीदेन तीन घोड़
ऑउर हमका मिला कानी गदहिया

ओ के बाद गये घाट पर पानी पियावे
मीर पियायें मीर घाट
दादा पियायें तीर घाट
और हम पियाए  धोबी घटवा
हमार गदहिया गए थक

मीर पकडें मीर गोड
दादा पकडें तीन गोड
और हम उठाय के दुईछत्त्वा पे खड़ी कय दिहे

ओ के बाद गए बगिया मा आम खाए
मीर खाएन मीर आम
दादा खाएन  तीन आम
ऑउर हम चाटे गुठलिया

एतने मा रख्वरवा आई गय
मीर कऽ मारिस मीर लाठी
दादा कऽ मारिस तीन लाठी
ऑउर हमका उठाए के पटक दिहिस 
गुदवे छितराय गय...!!
.............................
चईलिया = पतली लकड़ी जो जलावन के काम काम  आती है !
दुईछत्त्वा=अटारी (loft)
रख्वरवा=रखवाला
गुदवे =दिमाग का गुदा .....:)
 
इस लोक कथा से यही शिक्षा मिलती है कि "किसी की देखा देखी  न करें और अपनी क्षमता और कार्यकुशलतानुसार ही किसी  कार्य का निर्धारण  करें "
 
 

 

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