"मुसलसल चलती जिंदगी
पटरियों पर रेंगते डब्बों कि मानिंद
साथ चलती पटरियां
कहीं मिलती नहीं कभी
हमसफ़र ,हमराज है
बिछुड्ती नहीं कभी
रेल का सफ़र जाना सा!पर
जिंदगी का सफ़र अनजाना सा
कहाँ से चला याद नहीं
कहाँ है जाना पता नहीं
रेल के पहियों से दबी पटरियां
रोती भी है कभी-कभी..
पटरियों पर हुए घाव और उनकी तड़प! .
मैंने महसूस की हैं ...
उन जख्मों की तरह....
जो कुछ गैर और कुछ अपने दे गए थे कभी
जिस्म के कटे हिस्सों पर
रेल की दिशा बदलती है, पटरियां
जिंदगी भी पटरियों पर ...
रूकती ....रेंगती.....दौड़ती ...हैं .!
आज जी चाहता है
इस रेल को छोड़...
पटरियों के साथ चलूँ
एक अनजान मंजिल की ओर
कभी ना ख़त्म होने वाले सफ़र पर !!!!
~~~S-ROZ~~~..