जब-जब मैं तुम्हे
बंद आखों से निहारती हूँ हमारे बीच का व्याप्त मौन
शांत प्रकृति की ध्वनियों की तरह
तरंगित हो उठता है
जो विचलित नहीं करता
बल्कि उस मौन को और भी गहरा देता हैं
फिर मौन से भरा सारा आकाश
मुझे घेर लेता है
जो तुम्हारे होने की अनुभूति है
क्यूंकि ...............
तुम तो आकाश हो न ?
~s-roz~
लाजवाब...
ReplyDeleteहार्दिक। आभार। वाणभट्ट। जी
ReplyDeletebahut acchi rachna !
ReplyDeleteगोस्वामी तुलसीदास
सुन्दर।
ReplyDeleteबहुंत ही अच्छी रचना।
ReplyDeleteबहुंत ही अच्छी रचना।
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