अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Thursday, October 24, 2013

"इक चोट की मुंतज़िर "


रास्ते के गर्द आलूद पत्थर पर
जो उसकी नज़रें इनायत हुईं
उसे गढ़ने को वो मचलने लगा
शिल्पी उसे तराशता गया
बुत निखरती गई, संवरती गई

राहगीर रुक रुक कर
उसके रूप को निहारा करते ...

कभी कोई बोल उठता
"जान पड़ता है इसमें जान ही डाल दोगे"
इन सब से बे खबर
उसकी छेनी हथौड़ी चलती रही

अचानक जोर की चोट
और उसकी उँगलियों में उभर आये
लहू के चंद क़तरे........
शिल्पी नफरत से भर उठा
उसे वहीँ छोड़ आगे बढ़ गया
कोई और मूरत गढ़ने

अब ना वो बुत ही रही ना ही पत्थर
नीम ज़िन्दा सी ....
हर आने जाने वालो की
हिक़ारत भरी उन नज़रों से कहती
'इक चोट की मुंतज़िर हूँ मैं '

बावली, नहीं जानती
आज का राम
वो वक़्त है ..............
जो जिस राह गुज़र गया
फिर लौट के नहीं आया

इक पल का वक़्त जो उसके पास होता
तो उस वक़्त देख पाता
जो लहू के क़तरे उसके हाथों पर उभरे थे
वो उसके नहीं .....
बुत के सीने से निकले थे

आह !! चोट खाकर भी चोट की मुंतज़िर है अहिल्या !!
~s-roz~

1 comment:

  1. very nice

    also watch my blog to read my poems..
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