अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Wednesday, March 19, 2014

बहारें फिर भी आएँगी

पेड़-पौधों से झरते
ज़र्द पत्ते 
उम्मीद की शक्ल 
अख्तियार कर 
मेरे कानों में 
"रूमी" के लफ्ज़ गुनगुना गए 
"हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम"
(हम हरियाली की तरह बार-बार उगे हैं)

Tuesday, March 18, 2014

कुछ देर ठहरूं तो चलूँ

बेनयाज़ लहरें 
मुझको खेंचती है 
दम-बदम 
अपनी जानिब 
कहकर ये 
"हासिल करने है तुम्हे 
अभी मुक़ामात कई 
देखनी है अभी 
और भी दुनिया नई" 
पर बन गया है 
मेरे क़दमों का लंगर 
मेरा ही आशियाँ 
सोचती हूँ .....
कुछ देर ठहरूं तो चलूँ 
सोचती हूँ ....
कुछ देर और ठहरूं तो चलूँ 
~s-roz~

बेनयाज़=स्वछन्द

Friday, March 7, 2014

"महिला दिवस"

बचपन में याद है हमें साल के ३६४ दिन मार, डांट ,फटकार ,मुर्गा बनना इत्यादि जैसे प्यारे प्यारे ज़ुल्म बड़े-बड़वार हमपर कर लेते थे मगर जन्मदिन के दिन हमें खुल्ली आज़ादी होती थी उस दिन हम कुछ भी करे माफ़ होता था उसी प्रकार ..आज "महिला दिवस" है आज कम से कम मन भर मर्दों के प्रति भड़ास निकाल लिया जाय .......... मर्दों को इसमें उन्हें बुरा नहीं मानना चाहिए क्यों हैं ना ? आखिरकार आज हमारा दिन है ....तो इसी बात पर हाज़िर है एक भड़ास !!

"
चौपाल में बैठे एक वृद्ध ने 
चिंतनीय स्वर में पूछा ?
मित्रों! आजकल जो औरत और मर्द के 
समान होने का राग़ अलापा जाता है 
तो वो दिन दूर नहीं जब ....
हमेँ औरतों से हीनतर समझा जायेगा 
उनकी गुलामी से फिर 
कौन हमें मुक्ति दिलाएगा ?

उनमे से एक बुद्धिजीवी बोला 
मित्र ! इसमें डरने की क्या बात है?
एक दिन, फिर बुद्धिमान एवं जागरूक 
औरतें सामने आयेंगी 
जिस तरह जागरूक मर्दों ने 
औरतों की आजादी की लड़ाई लड़ी है 
उसी तरह ये भी हमें आजादी दिलाएंगी .

~s-roz~
बुरा न मानो महिला दिवस है  

ज़ारबंद ______महिला दिवस पर विशेष

थाने मे ...
बेंच के कोने पर 
ज़ख्म से बेज़ार 
गठरी बनी घायल लड़की
सिकुड़ी,सहमी सिसकती है
घूरती नज़रें उसके ज़ख्मों को 
और भी गहरा कर देती हैं 
उसकी माँ बौख़लाई सी 
उनके, कब, कहाँ, कितने, कैसे
जैसे सवालों का 
जवाब देती हुई, दर्ज़ करा देती है 
उन दरिंदों के ख़िलाफ़ 
ऍफ़ आई आर !

अस्पताल के ....
जनाना जनरल वार्ड में 
मुश्किल से बेड मयस्सर हुआ है 
वार्ड बॉय, नर्स और मरीज़ों में 
फुसफुसाहट जारी है 
एक के बाद एक डाक्टर 
जिस्म के ज़ख्मों का 
अपने-अपने तरीके
से जांच करता हैं 
मन का जख्म
जो बेहद गहरा है 
वो किसी को नहीं दिखता 
और इस तरह 
तैयार हो जाती है 
बलात्कार की 
मेडिकल रिपोर्ट !

अदालत में ...
अभियोगी वकील बे-मुरउव्वत हो 
उससे सवाल पर सवाल दागता है 
कब, कहाँ, कितने, कैसे 
वो घबराहट और शर्म से
बेज़ुबान हो जाती है 
जवाब आंसुओं में मिलता है 
उसका वकील 
उसके आँसू पोंछते हुए कहता है 
जनाब-ए-आली ये सवाल ग़ैर-ज़रूरी है 
अदालत वकील पर एतराज़ कर 
उसके आँसू खारिज़ कर देता है 
आँसू रिकॉर्ड-रूम में चले जाते हैं 
हर पेशी तक उसकी माँ 
उम्मीद का एक शॉल बुन लेती है  
और अदालत बर्ख़ास्त होने तलक़
वो तार-तार उधड़ जाता है 

अब वो .......
खाक़ी, सफ़ेद, और काले रंग से 
बेहद ख़ाहिफ़ है 
विभिन्न कोणों के पैमाने  पर 
उन रंगों ने उसे, लड़की से 
ज्यामिति बना दिया 
जिसे केवल ...
जांचा, नापा, परखा जा सकता है 
उसे अब लड़की बनने नहीं देता
उस भयावह घटना को 
वो वक़्त की खिड़की से 
परे ढकेल देना चाहती है 
पर समाज और हालात 
उसे भूलने नहीं देते !

अब वो स्कूल नहीं जाती 
मां के सिवा किसी को भी 
याद नहीं उसका नाम 
पीड़िता,रेप वाली लड़की, विक्टिम 
कई नाम दे दिए गए है उसे 
माँ अब लोगों के घरों में 
काम करने नहीं जाती 
अब वो घर में ही 
सिलती है, औरतों के पेटीकोट 
और बगल में बैठी वो 
डालती जाती है 
उन पेटीकोटों में ज़ारबंद 
और दांत भींच कर 
कस कर लगा देती है उनमे गांठ 
जैसे कोई जल्दी खोल ही न पाए !

वक़त उनके लिए थम सा गया है 
बस दीवार पर 
टंगी केलेंडर की तारीख़ बदलती है 
बावजूद इसके 
माँ अब भी 
अगली पेशी के लिए 
बुन रही है 
उम्मीद की इक शॉल !!
~s-roz~