अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Monday, December 9, 2013

" ग़ज़ल" (आज के सियासी हालात पर)

"आप" का अनुबंध कितने दिन चले 
देखते हैं, ये प्रबंध कितने दिन चले 

ना दिखेगा कासा किसी के हाथ में 
देखते हैं,ये सौगंध कितने दिन चले 

अबके सावन फिर, भर उठेगी नदी 
देखतें हैं,ये तटबंध कितने दिन चले 


जो डोर थी उसमे पड़ी गांठे ही गांठे 
देखते हैं,ये सम्बन्ध कितने दिन चले 

इसे तोड़ उसे जोड़ की है ये राजनीति 
देखते हैं, ये गठबन्ध कितने दिन चले 

~s-roz~

Saturday, December 7, 2013

"ग़ज़ल"

जितना कम सामां
सफ़र उतना आसां

मुझे अब याद आई 
बुजुर्गों की वो ज़बां

निकले थे सफ़र में 
लेकर ढेरों अरमां 

दोनों हथेलियों में 

भरकर दौलते जहां 

रस्ते में मज़लूम थे 
बच्चे बूढ़े औ जवां

खोली न मुट्ठी कभी 
सफ़र के दरमियां

गैरत से दामनकशां 
हुए ना हम पशेमां

था आगे सफ़र में 
बियाबां ही बियाबां

दूर तलक़ जंगल में 
ना मकीं थे न मकां

आगे देखा ज़बल जब 
तब हुए हम परीशां

बिना सहारे चढ़ना 
क़तई न था आसां

चलना ज़िन्दगी थी 
रुकना ख़तरा-ए-जां 

खोल दी हथेलियां 
दौलत हुआ जियां

देने को सहारा मुझे 
फैली थी शाखें वहां 

खुदा भी ले रहा था 
खुदगरज़ी की इम्तहां

ख़ाली हाथ आये थे 
ख़ाली रुख़सते-जहां

~s-roz~
मजलूम =मजबूर /पीड़ित
दामनकशां = दामन बचाते हुए 
पशेमां=लज्जित 
ज़बल=पर्वत 
मकीं =मकान में रहने वाले 
जियां=व्यर्थ 
रुख़सते-जहां=जहां से विदा होना

Tuesday, December 3, 2013

"ग़ज़ल"

सुर, सरगम आवाज़-ओ-साज़ मांगती है 
जिंदगी राग-ए-दर्द का रियाज़ मांगती है

कब, कहाँ, कैसे, कितना, क्या-क्या किया 
उम्र की बही हर साँस का ब्याज मांगती है

वसीयत के साथ उम्र भी बंट गयी उसकी 
वो मगर,बच्चों की उम्र-ए-दराज़ मांगती है

पर क़तरे और फ़र्श पर जमे है पांव मगर 

हिम्मत अर्श के रुख को परवाज़ मांगती है

किस्मत में आसाइश-ए-मंजिल हो के न हो 
'रोज़' हर इक अंजाम का आगाज़ मांगती है

~s-roz~
आसाइशे-अंजाम= happy ending