उड़ीसा के प्रमुख सहित्यकार श्री रमाकांत रथ जी"का अनूठा खंड काव्य "श्री राधा " राधा के उदात्त और प्रेममय चरित्र के अनगिनत पृष्ठ खोलता है , इन्हें पढ़ते हुए ऐसे अद्भुत नयनाभिराम दृश्य पलकों पर स्थिर हो जाएँ और इस अद्भुत प्रेम की पुलक और सिहरन को पलकों से बहता देखा जा सके . निष्काम प्रेम की बहती सरिता ...रमाकांत रथ की राधा में डॉ मधुकर पाडवी ने इस ग्रन्थ की बेहतरीन समीक्षा " अहा! जिंदगी" में पढने के बाद तो बस मुग्ध भाव से मुंह से यही निकला ...अनोखी राधा तेरी प्रीत! सबसे अलग , सबसे अनूठा ... ....
" श्री राधा से "कुछ अंश !!
तुम जब बंद करते हो बंशी बजाना
तुम जब बंद करते हो बंशी बजाना
तुम्हारा कंठ वाष्परुध हो जाने पर
शुद्ध निशब्दता की भांति हर बार मै
आती हूँ निःशब्द पुकार सुन
मै जानती हूँ लौट जाउंगी रात बीतने पर
पुनः अपने घर ,पुनः अपने मृत्यु में
फिर भी मै आउंगी कल रात उसके बाद
हर रात लौटूंगी तुम्हारे ही पास
आती रहूंगी जबतक मेरी देह
तुम टिका नहीं लेते मेरा जीवन
और अपना जीवन अंत होने के बाद
जब तक मै निश्चिंह नहीं हो जाती
पूरी तरह तुम्हारी शुन्यता में
.
राधा-कृष्ण की प्रेम कथा विश्व के किसी भी प्रेम कथा से भिन्न है ,जब वे एक दुसरे से मिले राधा का विवाह हो चुका था और आयु में भी कृष्ण से बड़ी थी,कृष्ण के साथ उनका सम्बन्ध ऐसा था की साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी , तब भी अगर वह अपने जीवन की अंतिम सांस तक कृष्ण को चाहती रही तो स्पष्ट है कि यह सब वह बिना किसी भ्रम के करती रही . कृष्ण के साथ अपने संबंधों का आधार उसने सांसारिक रूप से एक -दूसरे के साथ रहने के बजाय कुछ और बनाया , जो इससे कही अधिक श्रेष्ठ था . यदि व्यक्ति में कामना की निष्फलता को स्वीकार करने का साहस हो यह संभव ही नहीं कि वह किसी भी स्थिति में वियोग से पराजय स्वीकार करेगा .
प्रारंभ से ही वह ऐसी कोई आशा नहीं पाले रखती है अतः कुंठित होकर निराश होने होने की भी उसकी कोई सम्भावना नहीं है . यदि वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए कि कृष्ण को जिस सहानुभूति और संवेदन की आवश्यकता थी , वह उसे न दे सकी . न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है ! ...जय श्री राधे राधे
साभार-"अहा जिंदगी "
साभार-"अहा जिंदगी "