अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Thursday, August 29, 2013

रात / ग़ज़ल


दिन-भर की उलझी गुत्थियों से ठिठक जाती है रात
गर धूप मांगे शीतल चांदनी,तो बिदक जाती है रात !

मेरी यादें और तन्हाइयां, तारीक़ियों में सकूं पाती हैं
इक पल को जो मांगूं साथ,तो खिसक जाती है रात ! !

सड़क पर पड़ी घायल आबरू लोगों के लिए तमाशा है
बढ़ाता नहीं कोई अपना हाथ,तो सिसक जाती है रात !

दिन तो आइना है सभी के दर्द नज़र आते हैं सभी को
लेकर मरहम जो बढ़ाऊँ हाथ, तो हिचक जाती है रात !

उधार की रौशनी पर भले ही चाँद गुरुर करता हो मगर
रखने को उसे शफ्फाफ़ और गहरी छिटक जाती है रात !

रंग, मज़हब, वर्ग का फ़र्क तो उजाले में नज़र आता है
पूछ ले गर कोई उसकी जात,तो झिझक जाती है रात !

3 comments:

  1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका अज़ीज़ जी

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  2. हार्दिक आभार आपका दर्शन जी

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