अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Saturday, November 16, 2013

"ग़ज़ल "शोर करते थे परिंदे


बग़ैर मोड़ हमसफ़र, मुड़ गए तो क्या हुआ 
ग़ैर क़ाफ़िलों से तुम, जुड़ गए तो क्या हुआ

कोई आहट भी नहीं, कोई दस्तक़ भी नहीं 
भीड़ में अना के बिछुड़ गए तो क्या हुआ 

कट गया गली का वो आखिरी दरख़्त भी 
शोर करते थे परिंदे, उड़ गए तो क्या हुआ 

बीती शब्, तेरे शक-ओ-शुबा की आंधी में
रिश्तों के सफ़हे, मुड़-तुड़ गए तो क्या हुआ 

धुंध ने चुरा लियें हैं रंग-ओ-चमक धूप के 
ठंड से दिन ये, सिकुड़ गए तो क्या हुआ

भरा रहे दरिया प्रेम का, 'रोज़' इसके वास्ते 
रेत साहिल के सारे निचुड़ गए तो क्या हुआ
!
~s-roz~

5 comments:

  1. बहुत बहुत शुक्रिया नीरज !

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  2. कट गया गली का वो आखिरी दरख़्त भी
    शोर करते थे परिंदे, उड़ गए तो क्या हुआ ...
    गज़ब का एहसास लिए है ये शेर ... उड़ जाने का सबब हर कोई नहीं समझ पाता ...

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    1. आपने समझा आपका बहुत शुक्रिया दिगंबर जी

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  3. बहुत सुंदर गजल..वाह

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